दिल्ली : आज जब सारी दुनिया महिलाओं के लिए समर्पित दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रही है तो हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि एक महिला का सबसे प्यारा और सशक्त रूप मां वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर क्यों है. आखिर वृद्धाश्रम में रहने वाली मांओं के लिए कौन सा डे मनाया जाए. अपने बच्चों के द्वारा इन्हें यहां छोड़ने का डे, इस बोझ बनती ज़िन्दगी से पल-पल मरने का डे, बंद पिंजरे से आजाद होने का डे या किसी अपने की राह तकती इन बूढी आंखों के इंतजार का डे. आज हजारों मां वृद्धाश्रम में अपनों के आने की राह तक रही हैं कि काश उनका अपना बच्चा उन्हे इस बंद पिंजरे से आजाद कराके घर ले जाएगा. कितनी मांएं इस इंतज़ार में दम तोड़ चुकी हैं और कितनों की आंखें इंतज़ार में पथरा गयी हैं. आखिर क्यूं इनके अपने यहां पल- पल मरने को छोड़ जाते हैं, क्यूं अपनी ही मां इन्हें बोझ लगने लगती है. क्या घर का इक कोना इनके लिए सुरक्षित नहीं किया जा सकता है।
आज देश के तमाम वृद्धाश्रमों में रहने वाली हर उस मां के चेहरे पर पड़ी इन झुर्रियों में जिंदगी की अलग-अलग पड़ाव की कई कहानियां दर्ज हैं लेकिन ये कहानियां अभी खत्म नहीं हुई हैं, लिखी जा रही हैं, दर्द की, तड़प की, अकेलेपन की, जो गहराती झुर्रियों के साथ और गहराती जा रही हैं.
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सवाल आज उन सभी बेटों और समाज के लोगों पर भी खड़ा होता कि सारी उम्र की सेवा लेने के बाद आज बुढ़ापे की बैसाखी में सहारा बनने के बजाय इन्हें बेघर क्यूं कर दिया गया. जिस घर को अपने हाथों से सजाया था, अपनेपन, विश्वास और कभी न बिखरने वाले रिश्तों की नींव रखी थी. अपने खून पसीने की सारी दौलत उसमें लगा दी थी वो घर आज आखिर उनके लिए क्यूं बेगाना हो गया, क्यूं वे वृद्धाश्रमों में रहने को मजबूर हो गईं, क्यूं वो दौलत की पाई- पाई के लिए मोहताज हो गई हैं और इस सभ्य समाज के लोगों ने आखिर आज तक इस मुद्दे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाया.
वृद्ध मांओं की उपर्युक्त अमानवीय और असंवेदनशील स्थिति को देखकर कवयित्री मंजू दीक्षित जी की मशहूर पंक्तियां स्वाभाविक ही ज़हन में आ जाती हैं -‘मंदिरों में जाके दुआ मांगते हैं हम तब जाके होता कहीं बच्चे का जन्म, गर्भ के प्रसव की पीड़ा को सहें, ममता की कहानी को किससे कहें, सारे गम ऊँच-नीच सह जाते हैं, बंधनों में बंधकर रह जाते हैं, क्यूं बंधनों को तोड़ देते हैं, क्यूं आश्रमों में लाके हमें छोड़ देते हैं, क्यूं आश्रमों में लाके हमें छोड़ देते हैं.’
ये पंक्तियां शायद वृद्धाश्रमों में रहने वाली उन सभी बूढी मांओं की राह तकती आंखों की बेबसी को कह रही है कि जिन मांओं की गोद में बच्चों का बचपन बीता आज वही मां दर- दर की ठोकरें खा रही हैं. वे वृद्धाश्रमों में रहने को मजबूर हैं तथा ज़िंदगी की हर खुशी से महरूम हैं. इस प्रकार जब एक मां, घर में कभी अकेले अपने बच्चों के बिना नहीं रह पाती तथा अपनी संतान को कभी अपने से अलग नहीं कर पाती है, तो फिर बेटे कैसे बिना मां के बिना रह सकता है, कैसे बिना मां के वो घर में चैन की रातें सो लेते हैं. ऐसे कई सवाल हैं जो आज सभी मां की जुबां और जेहन में हैं और जिन्हें कहने को वो कई अरसे से इंतजार कर रही हैं. आज ज़िंदगी के इस अंतिम सफर में वो हर मां अकेली हो गयी है, जो वृद्धाश्रम में किसी अपने के आने की राह तक रही है.उनके इंतज़ार के आंसू सैलाब बन रहे हैं. काश इन आंसुओं की धार उन बेरहम औलादों तक पहुंचे. कहीं ऐसा ना हो कि इन आंसुओं के सैलाब में ये सारी कायनात बह ना जाए.
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दुनिया देख चुके अपने बड़े-बुजुर्गों को दरकिनार कर आजकल के युवा बेटे अपनी नई सोच से अपनी जिंदगी को सँवारना चाहते है. उनकी आजादी में रोक-टोक करने वाले बड़े-बुजुर्ग उन्हें नापसंद है. यही कारण है कि वे उन्हें अपने परिवार में देखना ही पसंद नहीं करते है. युवा पीढ़ी की इस सोच के अनुसार बड़े-बुजुर्गों की जगह घर में नहीं बल्कि वृद्धाश्रमों में है. वहाँ उन्हें उनकी सोच के व हमउम्र लोग मिल जाएँगे, जो उनकी बातों को सुनेंगे और समझेंगे. वहाँ वे खुश रह सकते हैं परंतु ऐसा सोचने वाले युवाओं को क्या पता है कि हर माँ-बाप की खुशी अपने परिवार में और अपने बच्चों में होती है. उनसे दूर रहकर भला वो खुश कैसे रह सकते हैं? वृद्धाश्रम का नाम सुनने में भले ही अच्छा लगे किंतु यहाँ भी जीवन में सन्नाटे पसरा हुआ है. यहाँ हर तरफ सन्नाटा है उस तूफान के कारण, जो यहाँ रहने वालों की जिंदगी में भूचाल बनकर आया था और उन्हें अपनों से दूर कर गया. यहाँ की सुनसान रातों में भी अपनों से बिछुड़ने के दर्द की सिसकियाँ सुनाई पड़ती हैं. यहाँ के हर हँसते चेहरे की पीछे दर्द में डूबा एक भावुक इंसान छिपा है, जो प्यार का स्पर्श पाने मात्र से ही आँसू के रूप में छलक उठता है. अपनी जिंदगी की हर एक घड़ी में अपनों को याद करने वाली ये बुजुर्ग मांएं कोई पराई नहीं बल्कि हमारी अपनी हैं, जिन्हें हमने घर से बाहर धकेलकर वृद्धाश्रमों में पटक दिया है. बड़े-बुजुर्ग परिवार की शान होते वो कोई कूड़ा-करकट नहीं हैं, जिसे परिवार से बाहर निकाल फेंका जाए. अपने प्यार से रिश्तों को सींचने वाली इन बुजुगों को भी बच्चों से प्यार व सम्मान चाहिए, अपमान व तिरस्कार नहीं. अपने बच्चों की खातिर अपना जीवन दाँव पर लगा चुकी इन बुजुर्ग मांओं को अब अपनों के प्यार की जरूरत है. यदि हम इन्हें सम्मान व अपने परिवार में स्थान देंगे तो शायद वृद्धाश्रम की अवधारणा ही इस समाज से समाप्त हो जाएगी.
डॉ श्याम सिंह
समाज कार्य विभाग, म.गां.अं.
हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा